दो चार हो ही जाये आज
उनसे मिल ही आये आज
मौसम बदल गया है
आकाश दिखने लगा है साफ़
नदी भी हुई है शांत
पहाड़ अपने ढलानों पर हरे हुए है फिर
मैदानों से गले मिलते हुए
चिड़िया भी सुबह चहचहाने लगी है
सब कुछ हुआ है शांत ,सुकून देने वाला
फिर मेरे हिस्से अभी भी क्यूँ ये वीरानी ,
ये बंद दरवाजे ,ये अँधेरा ,सख्त पहरा
पूँछ ही लेता हूँ आज उससे
क्या ख़तम हो गए थे सारे रंग
या सूख गई थी श्याही
जो कर दिया मेरा केनवास यूँ बदरंग ....
अपने चित्र की शिकायत सुनता है कभी चित्रकार ....
ये बंद दरवाजे ,ये अँधेरा ,सख्त पहरा
ReplyDeleteपूँछ ही लेता हूँ आज उससे
क्या ख़तम हो गए थे सारे रंग
या सूख गई थी श्याही
जो कर दिया मेरा केनवास यूँ बदरंग ....
अपने चित्र की शिकायत सुनता है कभी चित्रकार ....
बहुत खूबसूरती से मनोभावों को आपने कलमबद्ध किया है। अच्छी रचना।
पूनम