कभी कभी जंगल में चलते हुए
जब सुनते है अपनी पदचाप
सिहर जाते है भीतर तक
रूकते नही है
मगर रूक जाते है
देखते है अपने भीतर
बढ़ रहा है जो जंगल
उसके अंधेरों में अपने को फंसा हुआ पाते है
राह खोजते है चलते हुए
अपने भीतर रूक कर
पाते है अपना आप
जंगल में वो मिल जाता है
जिससे मिलने के लिए
तरसते है पूरे जीवन
मिल कर फिर क्यों जुदाहो जाते है
जंगल से निकल हम
भीतर क्यों बढ़ा लेते है फिर जंगल
शहरों में पहुँच कहा खो जाते है हम
खुद अपने से क्यों नहीं मिल पाते है ?
खुद अपने से क्यों नहीं मिल पाते है ?
ReplyDeleteशायद खुद के अन्दर आरोपित जंगल को हम जुदा ही नहीं कर पाते हैं
सुन्दर कविता
बहुत अच्छी प्रस्तुति संवेदनशील हृदयस्पर्शी मन के भावों को बहुत गहराई से लिखा है
ReplyDeleteजंगल का एकाकीपन हमें स्वयं से बातें करने को बाध्य कर देता है । शहर की तड़क भड़क हमसे वह सुख छीन लेती है ।
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