रुको
सुनो
ठहरो
मत ताको बाहिर
में हूँ
नही पहिचाना
खुदको
बरसो से कहते गुरु सारे
ग्रंथ सारे ,
मगर अब तक खोजा
तुमने खुदको बाहिर
अरे ,में किस-से कर रहा बात
वो त्तो मशगूल है
मदहोश है
अब भी
बाहिर की दुनिया में ...
मुझे है विस्वास
एक दिन लौटेगा
वो अपने भीतर
तब तलक हूँ
और रहूँगा में उसके भीतर ///
बेहतरीन रचना!!
ReplyDeleteएक दिन लौटेगा
ReplyDeleteवो अपने भीतर
तब तलक हूँ
और रहूँगा में उसके भीतर...
विश्वास बना रहे ...शुभकामनायें ..!!
अरे ,में किस-से कर रहा बात
ReplyDeleteवो त्तो मशगूल है
मदहोश है
अब भी
बाहिर की दुनिया में ...
मुझे है विस्वास
एक दिन लौटेगा
वो अपने भीतर
तब तलक हूँ
और रहूँगा में उसके भीतर ///
यही शाश्वत सच है, बाकि सब भ्रम, जिसकी समझ देर से क्यों आती है............
सुन्दर कविता.
बधाई.
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
बहुत ही ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने! इस बेहतरीन रचना के लिए बधाई!
ReplyDeletegahre ehsaason ka sanyojan
ReplyDeletejeevan-darshan
ReplyDeleteaur uss ki baareeqeeyoN ko
samjhaati hui nayaab kavitaa
ek-ek lafz
zindgi ke qareeb se ho ke guzraa ho jaise
abhivaadan svikaareiN
---MUFLIS---