तुमसे होती हूँ
पुरे देश
पहाडों से मैदानों तक
कई नगरों ,गावों ,महानगरों
के तटों पर नतमस्तक होते जन
अपार करते स्नेह
पूजते ,मेरे जल को ले जाते दूर -सुदूर से आए जन
मगर
न जाने क्यूँ छोड़ देते दुर्घंध
कारखानों का पानी
नालों का पानी .......////
गोमुख ----
माफ़ करना मुझे
तुम्हारे दिए जल प्रसाद को में सुरक्षित
नही पहुँचा पाउंगी सागर तक ...
शिखर की बर्फ को सह कर
अपनी ऊष्मा से तुमने मुझे किया जल
और में अभागी गंगा
अपनी पूजा करवा कर
नदियों में माँ का स्थान पाकर भी
अपने भक्तों के मल को ही लेजाती हूँ
सागर तक .....
तुम्हारे दिए जल प्रसाद को में सुरक्षित
ReplyDeleteनही पहुँचा पाउंगी सागर तक ...
यही तो बिडम्बना है. पूजा तो करते है हम पर दूषित भी कर देते है.
नदियों के बारे में, मैं अक्सर सोचता हूं
ReplyDeleteकि आखिर मेरी राख वहीं पर जानी है
प्रकृति के साथ चल रहे खिलवाड़ ---नदियों की दुर्दशा को चित्रित करती सुन्दर रचना।
ReplyDeleteहेमन्त कुमार
लाजवाब......!!
ReplyDeleteगंगा के विलाप को बखूबी पेश किया है आपने .....!!