अंतर्विरोधों के बिना कैसे कौन जी सकता
सोचना कुछ और करना कुछ
मानव मन की मजबूरी या नियति
मन की हिलोरों के नक़्शे को
अपने प्रदत मूल्यों की पेंसिल से
व् वर्जनाओं के रबर से
नियंत्रित कर बनाना पड़ता है
अपने मन को खूबसूरत
और फिर भूल कर अंतर्विरोधों को
जीना होता है सभ्य समाज
तब जो चित्र बनता है
मानव का
उसे स्थान मिल पाता है
विश्व की बेहतरीन गेलरी में टंगने का ..
क्या मैं पा सकूंगा ये स्थान ?
मानव के मन को कोई बुझ नही पाया है..एक सच इंगित कराती ..बढ़िया रचना...धन्यवाद राकेश जी
ReplyDeleteसोचना कुछ करना कुछ..जीवन धारा है...गहरी रचना!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर मन के अन्तर्दुअन्द की अभिव्यक्ति शुभकामनायें
ReplyDelete