देह की मजबूरी है
कि भीतर रहे अँधेरा इतना घना
कि उससे
रोशन हो सके
एक दुनिया पूरी
जो समय की तरह बदलती
है
अपना रूप
जिसे पहनना -ओढ़ना - बिछाना पड़ता है
गाहे - बगाहे /
देह को अपने नाम से
पहचाने जाने के लिए
-----जरुरी है
पहिचानना
देह के भीतर का
अँधेरा /////
आज पता नहीं क्यों आपकी बातें काटने पर तुल गया हूँ .. बुरा बिलकुल नहीं मानियेगा .. आलोचना आपके व्यक्तित्व को लेकर नहीं है विचार पर है .. देह के भीतर कभी कोई अँधेरा नहीं होता ..वहाँ केवल और केवल परमात्मा का प्रकाश होता है .. दिल का धडकना .. रक्त का संचालन .. हड्डी मांस मज्जा का बनना .. अंधेरों का कार्य नहीं है .. हाँ आदमी ने अपने बाहर अँधेरे जमा कर लिए हैं यद्यपि इन बाहर के अंधेरों का भी कोई काल सापेक्ष प्रयोजन तो होगा ही ..
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