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Friday, November 6, 2009

मुड गया है रास्ता

मुड गया है रास्ता 
हरियाली से पतझर की तरफ 
पहाड़ से ढलान लुढ़क गया है रास्ता 
बर्फ से पानी कहा अब 
पानी से बर्फ होते है 
पहाड़ के आंसू झरते नहीं 
झार झार बहते है 
साथ बहा ले जाते है बस्तियां 
एक घर में अब कई घर होते है 
कही जलता है चूल्हा
त्तो कही दूर बैठे लोग तपते है 
मत करो अब बात तुम किसी किताब की 
पढने वाले त्तो अब रोज 
झरे पत्तों से पीले हुए 
सियासत की हवा में बहते है 
लहजा बदल गया क्यों मेरा 
मेरे बचपन के साथियों से पूछो 
कभी राह में मिलते है 
त्तो क्यूँ  मुह फेर निकल जाते है  
या मुझसे पूछों क्यूँ मेरी माँ 
रहती है अकेली 
और में रहता हूँ बीवी को लेकर 
मेरे बचों  के साथ एक ही शहर  में 
बाप बना अपने घर.....

3 comments:

  1. राकेश जी ,कविता की अंतिम पांच पंक्तिया बहुत ही सुन्दर है और सोचने को मजबूर करती है !

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  2. chachaji ,tamacha mar rahe ho muh par mere .aisa lag raha hai ,lekin kya kare haalat se majboor hai kuch log ,jaisa mai.....

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