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Wednesday, November 4, 2009

क्यूँ कह रहा आपसे

अब किसका इंतिज़ार है 
पेड त्तो कट चुका कभी का 
पंछी भी उड़ गए 
राहगीरों ने भी बदल लिया रास्ता 
बंज़र हुए इस मैदान क्यूँ  खड़े हो ?
सोच रहे हो 
कैसे बनाओगे यहाँ इमारतें 
या देख रहे हो यहाँ से 
अगर दिख रही हो कही हरियाली 
बची हुई 
त्तो उसका करोगे किस तरह विज्ञापन 
बेचने अपनी इमारतें 
त्तो भूल कर रहे हो 
यहाँ से दूर तलक इमारतों के सिवाय 
कुछ नहीं दिखाई देता 
आकाश देखने भी जाना पड़ता है 
शहर से मीलों दूर 
इतना सा वाक्या
क्यूँ कह  रहा आपसे 


जानता हूँ 
की आप भी जानते है ये सब 
मगर चुप भी 
त्तो नहीं रहा जा सकता ...

 

4 comments:

  1. आज के महानगरो के हालत पर सुन्दर कविता !

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  2. बहुत सही बात और सुन्दर कविता।
    घुघूती बासूती

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  3. आदरणीय राकेश मुथा जी,

    राम राम सा !

    मुझे लगता है कि प्रस्तुत कविता महज कविता न हो कर आंसू है , दर्द है...पीड़ा है जो शब्द रूप में आपकी आत्मिक आँख से बहा है । आपका दर्द इस धरती का भी दर्द है और धरती पर रहने वाले सभी जीवों का भी दर्द है लेकिन आपने जिस तरह साफ़गोई से बिना किसी शब्दाडम्बर के कहा है , मैं उसका कायल हो गया हूँ......

    वाह !
    जय हो !

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  4. waah ........adbhut lekhan.......aaj ke halat ki samiksha .

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