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Friday, December 4, 2009

क्या मैं पा सकूंगा ये स्थान ?

अंतर्विरोधों के बिना कैसे कौन जी सकता
सोचना कुछ और करना कुछ
मानव मन की मजबूरी या नियति
मन की हिलोरों के  नक़्शे को

अपने प्रदत मूल्यों की पेंसिल से
व् वर्जनाओं के रबर से
नियंत्रित कर बनाना पड़ता है
अपने मन को  खूबसूरत 
और फिर भूल कर अंतर्विरोधों को
जीना होता है  सभ्य समाज
तब जो चित्र बनता है
मानव का
उसे स्थान मिल पाता  है
विश्व की बेहतरीन गेलरी में टंगने का ..
क्या मैं पा सकूंगा ये स्थान ?

3 comments:

  1. मानव के मन को कोई बुझ नही पाया है..एक सच इंगित कराती ..बढ़िया रचना...धन्यवाद राकेश जी

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  2. सोचना कुछ करना कुछ..जीवन धारा है...गहरी रचना!!

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  3. बहुत सुन्दर मन के अन्तर्दुअन्द की अभिव्यक्ति शुभकामनायें

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