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Sunday, March 28, 2010

मध्य में था .मध्य ही रहा

सूरज की पहली किरण से नहाई
ये फूलों की पंखुडियां 
पेड़ों  के हरे होते पत्ते
नदियों की उपरी सतह पर  बहता पानी
पहाड़ की चोटी पर का पत्थर  /

पौधों -पेड़ों की जड़ों में
अभी खिला है चाँद
नदियों के तल
पहुंची है अभी चाँद की शीतलता
पहाड़ों के भीतर
अभी है रात/

दोनों के मध्य
न चाँद है ---न उगता,अस्त होता  सूरज
उस मध्य समय
रचना के प्रसव का दर्द है
न अवसान की चिंता
उस मध्य जो भी है वो अपने चरम है /

उसी चरमावस्था की मित्र- तुम देखना मेरा
अवसान होते
मुझे अस्त होते ...मेरे न होने को  होते देखना ..
तुम  मुझको खुद में विलीन कर लेना ...
आह .कैसा ये संयोग 
मध्य में था .मध्य ही रहा
बन साँस तुम्हारी
अब में जी रहा .....

2 comments:

  1. दर्शन है कविता में......"

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  2. उसी चरमावस्था की मित्र- तुम देखना मेरा
    अवसान होते
    मुझे अस्त होते ...मेरे न होने को होते देखना ..
    तुम मुझको खुद में विलीन कर लेना ...
    आह .कैसा ये संयोग
    मध्य में था .मध्य ही रहा
    बन साँस तुम्हारी
    अब में जी रहा .....

    Bahut,bahut gahrayi hai rachname..maine kayi baar padhi aur har baar ek naya arth ubhara! Kamal hai!

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