बहुत बार सोचा
इच्छाओं के जंगल से बाहिर निकाल आऊं
कोई न कोई इच्छा लिपट मुझे रोक लेती
घने जंगल में जिन जगह धूप नहीं पहुँचती
वहा विष का प्रभाव ज्यादा होता है
हर समय नमी होती है
विषैले नागों की आरामगाह होती है वो जगह
इच्छाएं इतनी बढ़ चली है
कि अब इस जंगल में विवेक की धूप नहीं पहुँच रही है
इच्छाएं लिप्सा में बदल अब हर हाल तथ्य में बदलना चाहती है
येही हाल कमोबेश हर आदमी के मन का है
इतनी लिप्साओं को लेकर
कैसे करे प्यार अब कोई दूसरे से .......
जंगल काटने के हम खिलाफ है
मगर मजबूरी से काटते है इधन के लिए ..लकड़ी के लिए
मगर इन इच्छाओं के जंगल को कैसे काटें ...
और काट कर इन इच्छाओं का क्या करें ...
बहुतेरे है मार्ग ....शायद हम सोच सकें कभी ..
अभी तो दलदल मैं फंसे खुद को बचाएं ......
इच्छाओं के जंगल से निकलने में तो मुक्ति मिल जायेगी।
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