में तिरसठ साल का हो गया
मेने शायद ही कभी किसी दुसरे के बारे में सोचा
मगर मेने हमेशा चाहा सब मेरे बारे सोचे
कुछ देने का मैं कैसे सोचता
मुझे जब दिया ये घर
सब आज़ाद थे
बेहोश थे..झूमते अपनेपन के साथ
टांगते खुदको मुझ पर
बना बैठे मुझे अनजाने में एक खूंटी
जिस पर जैसे तैसे लादता चल रहा हूँ
मैं अब भी हाँफते ,रेंगते बस चलता जा रहा हूँ
और अब ये हालात है की
खूंटी हिलने लग रही है
खूंटी पर टंगे लोग
लड़ रहे है
बिना कुछ दिए सब पाने की आशा में
अपने आज़ाद होने की दुहाई देते
न जाने कब थकेंगे
हर बार में
अपने जन्मदिन पर
सोचता हूँ
शायद अब हम आज़ादी का मतलब जान जायेंगे
शायद अब मेरे परिवार का प्रत्येक सदस्य
अपनी रचनात्मक सोच का इस्तेमाल कर
हमारे घर को सुंदर बनाएगा ..............................................................................................................................जयहिन्द
हर bar बस सोचते ही रह जाते हैं .सार्थक रचना .आभार
ReplyDeleteऔर सोच से आगे नही बढ पाते………सुन्दर अभिव्यक्ति।
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