उसकी बात्तों में पुराना घर है
उसकी माँ है
और है वे यादें
जिनके सहारे वो आज के पुरुष को सोचती है
ठीक वैसा ही घर ,ठीक वैसा ही ढांचा
मगर पुरुष वो --पिता सा नहीं
वो याद करती है उन उत्सवो को
उन शामो को जब वो मिलती थी अपने आप से
उन रिश्तो के बीच
आज वो पहचान नहीं पाती खुदको
कभी सोचती है वो कहा आ गयी
कभी ये कि मेरी बिटिया भी क्या ये सब भोगेगी
शाम होने आई है ..बहुत काम है
कविता तुम ठहरो यही कल मिलती हूँ तुमसे
या फिर सोचती हूँ काफी कुछ कह दिया है
शायद बाकि कुछ जो बचा है
समझ जायेंगे रसिक ...
तो अभी चलू ..वो आते ही होंगे .....
maa ke dil ka dar kaun jaan sakta hain...nari khud ko khokar bhi khush hain lekin purush use pakar bhi khush nahi....kaisi vidambna hain samaj ki..uttam rachna...कविता तुम ठहरो यही कल मिलती हूँ तुमसे
ReplyDeleteया फिर सोचती हूँ काफी कुछ कह दिया है ...waah