Search This Blog

Tuesday, October 4, 2011

बातों की चक्की

एक चक्र चल रहा है जिसमे पीसी जा रही है बातें बाते
और अब बात्तों का रसभी निचुड़ चुका है
मगर वो फिराए जा रहा है लगातार
तिनका तिनका हुई बातों को
फिर फिर
सूखी बातों के चलते इस चक्र के बीच
बूढ़ा हो रहा समय
छोड़ता जाता है अपने वीभत्स निशाँ
सुबह अब रात होने के लिए जीती है
रात भी जैसे तैसे काटती है समय
न तो सूरज ,न चाँद, ना तारे
न फूल न भंवरे ,न नदिया
न ही सागर ,न क्षितिज
न कोई रंग ..बस चीख चीख
शब्दों की लम्बी चीखे
और भागता मौन
और आवाजें
बातों की चक्की
के लगातार चलने की
हाँ मगर इस सब मैं भी
चुग रही है हंस की तरह वो
उन सुंदर बातों को
जो शायद बदले ये दुनिया
उन शब्दों की उष्मा से .....

2 comments:

  1. bahut khub sir ji...
    jai hind jai bharart

    ReplyDelete
  2. खुबसूरत कविता

    विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं

    ReplyDelete