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Saturday, July 12, 2014

हूँ मगर परछाई

 हूँ मगर परछाई
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सख्त जमीन पर
कभी पेड़ों पर ,कभी नदी की तेज बहती धारा पर
कभी पर्वत के सिखर पर
कभी टूटे फूटे रास्तों के बड़े बड़े गड्ढो में
कभी किसी पोखर, किसी नाले में
मंदिर की धवजा पर
मस्जिद की मीनारों पर
गुरुद्वारा के पवित्र सरोवर पर
 जैसा मिला रूप
जैसा मिला स्थान होती  रही  हूँ
कभी  न होते हुए
आकार है मेरा ,चाल है मेरी
पहचान है मेरी
मगर मैं नहीं कभी साकार
लगातार होती  हुई  ,लगातार मिटती हुई
मैं नहीं हूँ
हूँ मगर परछाई ........राकेश मूथा 

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