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Sunday, September 6, 2009

बहरूपिया

कितनी देर अपने से दूर रहूँ
अपनी देह में रहते हुए
दूसरे की पहचान ओढ़ कर
अपने को कुचलता रहूँ
कितनी देर बाद
यह जान पाया तुमसे मिलने के बाद
कि देह तो मेरी है
पर मुझमें साँस लेता कोई और है
इतनी देर हो गई दोस्त
की अब ये जान लेना ही
मेरे दुःख का कारण है
न कि
अपनी देह में रहते
दूसरो को अपने में जीना ///

1 comment:

  1. यह आपकी रचना सुन्दर डायरी है, बहुत सुन्दर .. नितांत निजी अनुभव .. गहरा होने के बावजूद इसके पास दूसरों का अनुभव बन पाने का अवकाश सीमित है .. कविता में जो भी भाव , विचार या बिम्ब प्रेषित होता है वह व्यष्टि से से समष्टि कि यात्रा जैसा होता है .. यह मेरे विचार हैं बिलकुल जरूरी नहीं कि आप इससे सहमत हों

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