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Wednesday, September 9, 2009

बस देह है

बस देह है

क्या बात करे
बातें सारी
ईर्ष्या,द्वेष ,घृणा ,तक जाती है
प्रेम का पथ ऐसा त्तो नहीं था कभी
देह कभी इतनी विशाल नहीं थी
जिसकी छाया में ही हमें पड़ता यूँ जीना
कहाँ अब वो मन का फैलता स्वच्छ आकाश
जों सागर की आँखें नीली कर
मछली की सोच को करता था विशाल
अब त्तो बस देह है
जिसे तरह तरह से करते विज्ञापित
और उसीसे करते प्यार
तभी त्तो अब हर प्रेम का है अंत
जो ले जाता
हमें पीडा,अवसाद ,तनाव की लपटों तक
जिससे
धू धू कर जलती है हमारी बस्तियां
जहा हम भागते है
एक दूजे को रोंन्द -----खुद बचने ...

1 comment:

  1. प्रेम का पथ ऐसा त्तो नहीं था कभी
    देह कभी इतनी विशाल नहीं थी
    जिसकी छाया में ही हमें पड़ता यूँ जीना
    कहाँ अब वो मन का फैलता स्वच्छ आकाश
    जों सागर की आँखें नीली कर
    मछली की सोच को करता था विशाल

    waah prem ka sachcha roop bata kar aaj ke gande roop ko bhi bata diya
    bahut hi sunder rachna

    kaash prem phir se pavitra ho jaaye

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