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Friday, October 2, 2009

तुमसे होती हूँ
पुरे देश
पहाडों से मैदानों तक
कई नगरों ,गावों ,महानगरों
के तटों पर नतमस्तक होते जन
अपार करते स्नेह
पूजते ,मेरे जल को ले जाते दूर -सुदूर से आए जन
मगर
न जाने क्यूँ छोड़ देते दुर्घंध
कारखानों का पानी
नालों का पानी .......////
गोमुख ----
माफ़ करना मुझे
तुम्हारे दिए जल प्रसाद को में सुरक्षित
नही पहुँचा पाउंगी सागर तक ...
शिखर की बर्फ को सह कर
अपनी ऊष्मा से तुमने मुझे किया जल
और में अभागी गंगा
अपनी पूजा करवा कर
नदियों में माँ का स्थान पाकर भी
अपने भक्तों के मल को ही लेजाती हूँ
सागर तक .....

4 comments:

  1. तुम्हारे दिए जल प्रसाद को में सुरक्षित
    नही पहुँचा पाउंगी सागर तक ...
    यही तो बिडम्बना है. पूजा तो करते है हम पर दूषित भी कर देते है.

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  2. नदियों के बारे में, मैं अक्‍सर सोचता हूं
    कि आखिर मेरी राख वहीं पर जानी है

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  3. प्रकृति के साथ चल रहे खिलवाड़ ---नदियों की दुर्दशा को चित्रित करती सुन्दर रचना।
    हेमन्त कुमार

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  4. लाजवाब......!!

    गंगा के विलाप को बखूबी पेश किया है आपने .....!!

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