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Friday, October 9, 2009

सम्भंधी के जंगल में

संबंधो के जंगल में

पीले झर्झेर हुए पत्तों ज्यों

बिखरी पड़ी भावनाएं

कुचली जाती है हर पल

हर पल झरती है

कोमलता ,प्रेम से भरी इच्छाएं

अंधेरों में फुसफुसाहट होती है

आंसू अब कहा

लहू टपकता है

जब अट्टहास उसका

उडाता है मेरे समय का मजाक

अब में सिसकती नही

नही करती सिकायत

सहन करती हूँ

अपने को रोकती हूँ

कही में न बन जाऊँ

उसके जैसी जंगली

और भूल बैठू अपनी सभ्यता

जानती हूँ में

की वो यही चाहता है

की में भी बन जाऊँ उस जैसी

मगर नही में प्यार हूँ

कोमल हूँ

विश्वास हूँ

हूँ एक सभ्यता

जो रहूंगी हर दम ......

5 comments:

  1. राकेश जी,बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।

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  2. @
    कोमल हूँ

    विश्वास हूँ

    हूँ एक सभ्यता

    जो रहूंगी हर दम ......


    इस आस्था को नमन।
    ______________________
    'सम्भंधी' में वर्तनी त्रुटि है सुधार लीजिए। और भी कई जगह ...

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  3. शीर्ष वाक्य और ब्लॉग शीर्षक तो देवनागरी लिपि में कर दें। आप तो नागरी टाइप कर सकते हैं।

    धन्यवाद। आशा है बुरा नहीं मानेंगे।

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  4. मगर नही में प्यार हूँ

    कोमल हूँ

    विश्वास हूँ

    हूँ एक सभ्यता

    जो रहूंगी हर दम ......
    बेहद कोमल और सुंदर अभिव्यक्ति.."
    regards

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