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Sunday, October 18, 2009

अमावस्या मुस्कराई फ़िर

दिए जलते रहे रात भर
अमावस्या की रात
काला कलायन अंधेरा भागता रहा
कही नही मिली उसे ठौर
रौशनी की बेहिसाब लहरें ज्वार पर थी
बह गया अंधेरा .....///////
मुस्करायी अमावस्या .....
जिस राह बहा था अंधेरा
वहा की सूखी नदियों और
मुरजाये पेड़ों को देख ...
बंधी आस उसे
अपने रंग के फिर
फैलने की
दीवाली की रात यों
अमावस्या
मुस्कराई फिर ///////

4 comments:

  1. स्वागत है आपका.

    सुन्दर कविता के लिए बधाई.

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  2. बहुत बढिया रचना है।बधाई।

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  3. बहुत सुन्दर!

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