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Monday, October 26, 2009

वो एक खिज्र है

जाने की जल्दी है समान बांधने की फ़िक्र है
अभी तलक मेरी हर बात में उनका जिक्र है /

क्यों कहे उनसे तेरे शहर में कितनी फिक्र है
इसीलिए शायद हमारी हर बात तेरा जिक्र है //

तेरी जी हुजूरी ही पुस्तों से हमारी रिज्क है
तू इठलाता फिरे कि बस हमे तुजसे इश्क़ है ///

शरीर हमारा क्या है सजा संवरा तिक्क: है
घूमता रहे बदल बदल चेहरे वो एक खिज्र है ////

वो बचता है मुझसे न जाने उसे क्या दिक् है
कहे बस्ती पूरी वो कि उसे मेरी बड़ी फिक्र है /////

१...रिज्क ....रोजी
२ ..तिक्क:..गोस्त का लोथडा
३..दिक् ...परेशानी

6 comments:

  1. बढ़िया ग़ज़ल..........

    अच्छा लगा बाँच कर

    धन्यवाद

    उम्मीद है आगे और भी उम्दा कलाम दोगे पढने के लिए...........

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  2. आपकी ये गजल अच्छी लगी

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  3. बेहतरीन गज़ल, राकेश भाई.

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  4. तेरी जी हुजूरी ही पुस्तों से हमारी रिज्क है
    तू इठलाता फिरे कि बस हमे तुजसे इश्क़ है ///
    बहुत बेहतर.

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  5. राकेश जी बढ़िया ग़ज़ल है , बधाई

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