नए बरस की पहली सुबह
पुराने बरसों का पानी
खिला है मुझ पर फूल बन
जिन पर छाई है पुराने बरस की यादें
तितलियाँ बन
छूती मेरे फूलों को
मेरे हरे को
और खोजती मुझमें वो पौधा
जिस पर हुई थी वो मोहित
ढूंढती अपने निशान
जो समय के साथ
तने की छाल के भीतर खो गए है कही
जड़ें सब देख रही है
जमा रही है अपने पाँव
और भीतर ,और भीतर
अपनी शिराओं को
मिला रही है नदी की शिराओं से
पुराने पानी को मिला रही अपने में
जड़ें चाहती है
समय रहे --हमेशा --
हरा ...///////
बहुत ग़ज़ब के ख्यालात हैं ...... लाजवाब रचना की उपज हुई है जड़ों से .........
ReplyDeleteदिगम्बर नासवा
ReplyDeletedhanyawad ..apka bahut bahut dhanyawad.....honsla afzai ke liye ..achaa laga sriman
जमा रही है अपने पाँव
ReplyDeleteऔर भीतर ,और भीतर
अपनी शिराओं को
मिला रही है नदी की शिराओं से
पुराने पानी को मिला रही अपने में
जड़ें चाहती है
समय रहे --हमेशा --
हरा ...///////
Bahut hee hridayasparshee kavita---hardik badhai.
jarokha
ReplyDeletebahut dhanyawad ..aapke padhne se v pratikirya dene se meri kavyyatra mein taajgi aati hai ...aabhar