वासनाओं के सागर से
लोभ , क्रोध ,मोह ,मद ,अहंकार के दलदल से
वे चाहते है मुझे निकालना
बड़ी बड़ी बातें करके
मूल्यों की दुहाई देकर
दलदल से निकाल भी लाते है मुझे
मगर मुझमें वो मेरा कुछ नहीं देखना चाहते
सारी प्रार्थनाएं मेरी वो चाहते अपने लिए
अपना ईश्वर देकर मुझे
बनाना चाहते है माध्यम
साँसे मेरी हो ,और राग फूटे उनका
में रहूँ केवल चमड़े के तानपूरे सा
जब वो चाहे बजाना ..बजाएं
जो धुन चाहें ..वही धुन मेरा हो समय
क्यूँ निकाला मुझे दलदल से ?
वह मेरी पहचान तो थी !
में केवल औजार तो नहीं थी !
जाउंगी उसी दलदल ..और खिलूंगी कमल जयों
नहीं रहूंगी तुम्हारे साथ
भले ही हो तुम ईश्वर ....में नहीं बनूगी तुम्हारी प्रार्थना ///
बड़ी बड़ी बातें करके
ReplyDeleteमूल्यों की दुहाई देकर
दलदल से निकाल भी लाते है मुझे
मगर मुझमें वो मेरा कुछ नहीं देखना चाहते
सारी प्रार्थनाएं मेरी वो चाहते अपने लिए
अपना ईश्वर देकर मुझे
बनाना चाहते है माध्यम
साँसे मेरी हो ,और राग फूटे उनका
में रहूँ केवल चमड़े के तानपूरे सा....
बहुत खूब !
बहुत गहरी बात मन को अंदर तक छू गयी
ReplyDeleteबधाई इस सुंदर प्रस्तुति
जाउंगी उसी दलदल ..और खिलूंगी कमल जयों
ReplyDeleteनहीं रहूंगी तुम्हारे साथ
भले ही हो तुम ईश्वर ....में नहीं बनूगी तुम्हारी प्रार्थना ///
गजब की प्रस्तुति और भाव
मगर मुझमें वो मेरा कुछ नहीं देखना चाहते
ReplyDeleteसारी प्रार्थनाएं मेरी वो चाहते अपने लिए
अपना ईश्वर देकर मुझे
बनाना चाहते है माध्यम
बहुत गहरे भाव संजोये है आपकी ये रचना....बधाई
behad gahan abhivyakti.
ReplyDeleteSUNDAR SATEEK SAARTHAK....
ReplyDeletenice
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