जानता हूँ कही नहीं पहुंचूंगा
न तो मिलेगा रास्ता न ही कभी निकल पाउँगा
और जिस दिन निकला में खुद नहीं जान पाउँगा
सब कुछ रहस्य है
अनजाना है
अनजाना ही रहेगा
कुछ देर खोजूंगा ,कुछ देर आशा और निराशा में रहूँगा
मिटटी जयों फिसल जाती है मुट्ठी से
फिसल रहूँगा देह से
फिर भी जितनी देर रहूँगा
तुजसे करूंगा प्यार
खुद को जानूंगा तेरी नज़रों से
तुझे अपना आइना बनाऊंगा
जंगल के इस अँधेरे
तेरे हरे में अपने हरे को मिलाकर
खिलूँगा भविष्य का फूल बन
जाने से पहिले
फिसलने से पहिले
अपनी महक से तुझे महका तो दू
अपनी पहचान मिटा कर
तेरी पहचान में खो जाऊ
समय देख रहा है
उसे अपना नाच दिखाऊं
अपनी बात सुनाऊ
कविता एक यह पूरी कर जाऊं ......
समय देख रहा है
ReplyDeleteउसे अपना नाच दिखाऊं
nice..
http://dafaa512.blogspot.com/
Dumdaar lekhni aur bhavnaon se aot-prot
ReplyDeleteजबरदस्त...फिर डूबे!!
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण रचना है।बधाई।
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