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Wednesday, December 30, 2009

तभी हो सकेगा मेरे कल में उजाला

साल के आखिरी दिन
लिख लूँ  कविता
जिसमें हो साल के सारे दिन महीने
बीता  मेरा काल
वे सब भी हों जिनके साथ में रहा उस काल
मेरी सारी घृणा ,प्रेम ,छल ,विश्वास ,धोखा
सब हो इस कविता में
जैसे हो  दर्पण ,काल के सामने
दिख जाऊं  मैं और  मेरा समाज उस काल का
इस कविता में
तभी हो सकेगा मेरे कल में उजाला
स्वच्छ हो सकेगा मेरा आने वाला आकाश
कल जो बीत जाता है
आने वाले समय की नीव को करता कभी मजबूत
कभी नीव में मर जाता  है पानी ज्यूं बीता समय .....

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर क्विता है।बधाई राकेश जी।

    आपको व आपके परिवार को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।

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  2. नमिता02 January, 2010

    बहुत खूब.................सच है खुद से साक्छात्कार नही होग तो न भीतर भरा भरा होगा न अन्दर बाहर उजाला.............
    नव वर्ष मे लेखनी को और रवानगी मिले...........

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