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Friday, January 8, 2010

.तड़पते रहने को

वासनाएं बढती जाती है
सभ्य समाज के भीतर
चाहे अनचाहे बना लेती है अपना घोंसला
खुल कर कभी नहीं करती अपना इज़हार
रहती है सदा सफेदपोश की तरह
सुंदर बातों के भीतर
कभी नाच के ठुमकों में 
गीतों के बहाने करती भद्दे इशारे 
और कभी कलाकृति के बहाने उघाड़ देती है जिस्म
जमाती है अपने पाँव
अश्लीलता को शिष्टाचार का पहना कर जामा 
तलाश लेती है अपना शिकार 
जिस पर भूत की तरह होकर सवार
हर हाल पूरी कर लेती है अपनी आस
जैसे चतुर सत्ताधारी अपने कुछ सैनिकों को मरवा कर
जीत लेता है राज पाट
और पूरी कर अपनी कामनाये
जैसे छोड़ देता है
  जनता को
बीच राह में बिलखने 
वैसे वासनाएं भी तृप्त होकर
छोड़ देती है 
प्यार को
अकेला कर देती है..तड़पते रहने को ....

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4 comments:

  1. वासनाएं बढती जाती है
    सभ्य समाज के भीतर
    चाहे अनचाहे बना लेती है अपना घोंसला
    खुल कर कभी नहीं करती अपना इज़हार
    रहती है सदा सफेदपोश की तरह
    बहुत सटीक बात कह दी है.....बहुत बहुत बधाई ...

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  2. वासनाएं बढती जाती है
    सभ्य समाज के भीतर
    कभी नाच के ठुमकों में
    गीतों के बहाने करती भद्दे इशारे
    और कभी कलाकृति के बहाने उघाड़ देती है जिस्म
    जमाती है अपने पाँव
    अश्लीलता को शिष्टाचार का पहना कर जामा
    तलाश लेती है अपना शिकार

    bahoot khoob.....
    waah-wa .

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  3. हमारी गरिमामयी सभ्यता और संस्कृति पर हो रहे
    तरह-तरह के आघात और आक्रमण को
    बड़े सलीक़े से कलमबद्ध किया है आपने

    इसी लहजे से ही सही,,,,,,जागरूकता का परचम तो
    लहरा ही दिया है आपने

    अभिवादन स्वीकारें

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  4. आपको और आपके परिवार को नए साल की हार्दिक शुभकामनायें!
    बहुत बढ़िया लिखा है आपने!

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