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Thursday, February 4, 2010

में भी शायद चला जाऊंगा

आहटें  अनजानी दस्तक देती है
लहरें आती है कुछ कहने
बिना कहे नहीं लौटती होंगी
तट समझने की कोशिस करता होगा 
 समय की धडकने 
क्या कहना चाहती है ??
सुनने की कोशिस में देखता हूँ चित्र
पढता हूँ कविता
या कभी कुछ लिख भर  देता हूँ
मगर अनजाना  बढ़ता जाता है
वीराना बंजर सा
बढाता   प्यास
और और जानने के लिए  करता प्रेरित
मैं कितना कुछ जाने बगेर  शायद
चला जाऊंगा इस दुनिया से
जैसे गए वे सब
अनजानी आहटों  को और रहस्मय बना कर
में भी शायद चला  जाऊंगा
तुम्हे इन रहस्यों के बीच छोड़ ....
आहटों को तुमसे और अपरिचित करता
बढ़ाता धुंध
समय को तुम्हारी  पहुँच से करता बाहिर ....

7 comments:

  1. बहुत गहरे भाई! वाह!

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  2. Hradaysparshee rachana.....
    Aana duniya me aur usakee tarikh bhee pata chal jatee hai ye kaisee vidambana? kab kanha aur kaise kiske paas jana hai sabhee prashn chinhliye hai.....
    Jeevan amuly hai. Ek ek kshn jeena chahiye sabhee ko aur sarthak tab
    hee banega hamara jeevan........:)
    Aur vyastata saaree dhoondh hata degee

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  3. jeevan ki satyata ko ukerti rachna

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  4. सुन्दर रचना शुभकामनायें

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  5. अनिश्चित पल के रेले में
    स्वर्णिम मन के मेले में
    धूल भरा तन पाये सखे रे!
    अंतर भीगा जाये ।
    मन मेरा भरमाये ॥

    पर भरमा ना जाये मन...यहीं से जीवन का प्रारंभ होता है....

    यही जीवन की कहानी
    मन में रिसता नयन पानी


    आपको पढना अच्छा लगा..


    गीता पंडित

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  6. this poem is amazin dad.... dont worry I wont let ya down.. :)

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