क्या है जो दिखाई देता है
और नहीं दिखाई देता है
देखते हुए भी जो हम देख नहीं पाते
वही
जिसे सुनते हुए भी सुन नहीं पाते
जिसको महसूस करते हुए भी
अपनी भाषा में संप्रेषित नहीं कर पाते
हमारे जीवन का अहम् हिस्सा बन जाता है
वही
जिसका अर्थ हम कभी जान नहीं पाते
जैसे मेने जाना नहीं अब भी
आकाश के रंग में खोये सितारों के बारे
धरती के गर्भ से निकलते तरह तरह के रंगों के बारे
उठते हुए पर्वत के सन्नाटों के बारे
ताल में बह रहे पानी की खुस्फुसहतो के बारे
तेरे एकांत में बजते संगीत के बारे
मगर तुम ,आकाश ,धरती ,पर्वत ,ताल,सरोवर
एकांत ,सन्नाटे
ये सब ही तो है मेरा जीवन
जिसे में जीता हूँ
जानता कहा ?
acchee abhivykti
ReplyDeleteक्या बात है, राकेश भाई!
ReplyDeleteसच है हम बहुत कुछ नहीं जानते हैं लेकिन उन्हें जीते हैं। ऐसे ही जीवन निकल जाता है। बढिया अभिव्यक्ति।
ReplyDeletebahut gahri soch.
ReplyDeleteबेकरार
ReplyDeleteमैं जी रही हूँ,
भोग रही हूँ ,
इस जीवन के समस्त सुखों को!
मेरे भीतर एक अथाह प्रेम का सागर है,
जो बेकरार है बाहर आने को!
यह प्रेम जो स्वार्थी नहीं है!
जो केवल देना चाहता है,
खुशियाँ!
जो बाँटना चाहता है ,
दर्द!
जो चाहता है,
समां जाना ,
किसी के भीतर!
और विलीन हो जाना चाहता है उस में,
जैसे नदी विलीन हो जाती है सागर में!
और भूल जाती है,
अपना अस्तित्व!
क्योंकि सागर ही तो
उसका पूरक है!
मेरे भीतर का अथाह प्रेम
सागर के लिए ही तो है!
जो समेट लेगा मुझे अपने आँचल में
और मेरे इस अथाह प्रेम को मकसद देगा
जो बेकरार है सागर में विलीन होने को!!!
ग़ज़ब की सोच के साथ.... सशक्त रचना....
ReplyDeleteजीवन जीना कला है । कैसे जी रहे हैं, यह जानने लगेंगे तो विज्ञान हो जायेगा । कला ही रहने दीजिये ।
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत भाव, शुभकामनाएं.
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