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Saturday, March 6, 2010

जिसे में जीता हूँ

क्या है जो दिखाई देता है
और नहीं दिखाई देता है
देखते हुए भी जो हम देख नहीं पाते
वही
जिसे  सुनते  हुए भी सुन नहीं पाते
जिसको  महसूस करते हुए भी
अपनी भाषा में संप्रेषित नहीं कर पाते
हमारे जीवन का अहम् हिस्सा बन जाता है
वही
जिसका अर्थ हम कभी जान नहीं पाते
जैसे मेने जाना नहीं अब भी
आकाश के रंग में खोये सितारों के बारे
धरती के गर्भ से निकलते तरह तरह के रंगों के बारे
उठते हुए पर्वत के सन्नाटों  के बारे
ताल में बह रहे पानी की खुस्फुसहतो के बारे
तेरे एकांत में बजते संगीत के बारे
मगर तुम ,आकाश ,धरती ,पर्वत ,ताल,सरोवर
एकांत ,सन्नाटे
ये सब ही तो है मेरा  जीवन
जिसे में जीता हूँ
जानता कहा ?

8 comments:

  1. क्या बात है, राकेश भाई!

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  2. सच है हम बहुत कुछ नहीं जानते हैं लेकिन उन्‍हें जीते हैं। ऐसे ही जीवन निकल जाता है। बढिया अभिव्‍यक्ति।

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  3. बेकरार
    मैं जी रही हूँ,
    भोग रही हूँ ,
    इस जीवन के समस्त सुखों को!
    मेरे भीतर एक अथाह प्रेम का सागर है,
    जो बेकरार है बाहर आने को!
    यह प्रेम जो स्वार्थी नहीं है!
    जो केवल देना चाहता है,
    खुशियाँ!
    जो बाँटना चाहता है ,
    दर्द!
    जो चाहता है,
    समां जाना ,
    किसी के भीतर!
    और विलीन हो जाना चाहता है उस में,
    जैसे नदी विलीन हो जाती है सागर में!
    और भूल जाती है,
    अपना अस्तित्व!
    क्योंकि सागर ही तो
    उसका पूरक है!
    मेरे भीतर का अथाह प्रेम
    सागर के लिए ही तो है!
    जो समेट लेगा मुझे अपने आँचल में
    और मेरे इस अथाह प्रेम को मकसद देगा
    जो बेकरार है सागर में विलीन होने को!!!

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  4. ग़ज़ब की सोच के साथ.... सशक्त रचना....

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  5. जीवन जीना कला है । कैसे जी रहे हैं, यह जानने लगेंगे तो विज्ञान हो जायेगा । कला ही रहने दीजिये ।

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  6. बेहद खूबसूरत भाव, शुभकामनाएं.

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