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Friday, March 26, 2010

बात आग है

अब बात का क्या
कहा से शुरू हो कहा ख़तम हो जाती है
बेमन से शुरू हो  बात और मन मिला जाती है 
मन से शुरू करे बात और निराश हो लौटजाती है
बात धीरे धीरे अनकहे में शोर मचाती है
फिर जुबान बन जंगल की  तरह फ़ैल जाती है
घना अँधेरा छा जाता है
रिश्ता कसमसा टूटने का बेसुरा संगीत
सहते सहते टूट जाता  है
बात आग है
न भड़के तो सुलगने लगती है
भीतर ही भीतर धुंवा करती है
और जो चिंगारी बन जाये तो रिश्तों के महल को ढहा  जाती है
बात को चूल्हे की आग जितना जलना अगर आ जाए
तो प्यार बन घर को मंदिर बना जाती है
तो क्यों न हम तुम बनाये बात्तों का चूल्हा
जिस पर सिकें अपने प्यार की अनगिनत रोटियाँ .....

5 comments:

  1. वाह! बहुत गहरी बात कही. उम्दा रचना!

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  2. दिल को छू रही है यह कविता .......... सत्य की बेहद करीब है ..........

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  3. Aapki kavita ka ek ek shabd bahut gahraai liye hue hai.

    बात आग है
    न भड़के तो सुलगने लगती है...

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  4. सचमुच लाजवाव.
    बेहतरीन अभिव्यक्ति बहुत गहरी बातें

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  5. aapki yeh kavita dil ke gaharaion ko chhu jaati hai...dil mein chhupi baaton ko acchi tarah se suchit karti hain.

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