वो आये नहीं फिर
राह तकते तकते पत्थर हुई थी कभी अहिल्या
मैं तो भूल गयी पत्थर होना भी
ढांचा होकर रह गयी आज
रक्त मांस की निर्जीव पुतली
सांस भीतर लेती
बाहिर करती
मशीन ज्यों ....
भावहीन चेहरे की रेखाओं में डूब गए वो दिन
जब भाव खिले थे फूल की मानिंद
जिसकी महक से मैं सुवासित हुई थी
न जाने कैसी आई वो हवा
जो उड़ा ले चली
महक मेरी
फूल मेरा..
अब मैं ....हूँ
सांस लेती
बाहिर निकालती
कोरी एक काया ......
न जाने कैसी आई वो हवा
ReplyDeleteजो उड़ा ले चली
महक मेरी
फूल मेरा..
अब मैं ....हूँ
सांस लेती
बाहिर निकालती
कोरी एक काया .
khoobasurat abhivyakti.
फूल मेरा..
ReplyDeleteअब मैं ....हूँ
सांस लेती
बाहिर निकालती
कोरी एक काया ......
BAHUT KHUB
SHEKHAR KUMAWAT
http://kavyawani.blogspot.com/
BAHUT KHUB
ReplyDeleteSHEKHAR KUMAWAT
http://kavyawani.blogspot.com/
बहुत गहरी सोच....खूबसूरत अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत उम्दा!
ReplyDeleteBehad nazakat bhari tees...alfaaz hi aise chune hain!
ReplyDeleteसुन्दर भाव
ReplyDeleteउफ़!स्त्री मनोभावों का सशक्त चित्रण्।
ReplyDeleteBahut Sundar! manosthiti ka gahan adhyayan kar kavita ka srijan hua hai.
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