Search This Blog

Saturday, April 17, 2010

कोरी एक काया

वो आये  नहीं फिर
राह  तकते तकते पत्थर हुई  थी कभी   अहिल्या
मैं तो  भूल गयी पत्थर  होना भी
ढांचा होकर रह गयी आज
रक्त मांस की  निर्जीव पुतली
सांस भीतर  लेती
बाहिर करती
मशीन ज्यों ....
भावहीन चेहरे की रेखाओं में डूब गए वो  दिन
जब भाव खिले थे फूल की मानिंद
जिसकी महक से मैं  सुवासित हुई  थी
न जाने कैसी आई वो  हवा
जो उड़ा  ले चली
महक मेरी
फूल मेरा..
अब मैं  ....हूँ
सांस लेती
बाहिर  निकालती
कोरी एक काया ......

9 comments:

  1. न जाने कैसी आई वो हवा
    जो उड़ा ले चली
    महक मेरी
    फूल मेरा..
    अब मैं ....हूँ
    सांस लेती
    बाहिर निकालती
    कोरी एक काया .
    khoobasurat abhivyakti.

    ReplyDelete
  2. फूल मेरा..
    अब मैं ....हूँ
    सांस लेती
    बाहिर निकालती
    कोरी एक काया ......




    BAHUT KHUB

    SHEKHAR KUMAWAT

    http://kavyawani.blogspot.com/

    ReplyDelete
  3. BAHUT KHUB

    SHEKHAR KUMAWAT

    http://kavyawani.blogspot.com/

    ReplyDelete
  4. बहुत गहरी सोच....खूबसूरत अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
  5. बहुत उम्दा!

    ReplyDelete
  6. Behad nazakat bhari tees...alfaaz hi aise chune hain!

    ReplyDelete
  7. उफ़!स्त्री मनोभावों का सशक्त चित्रण्।

    ReplyDelete
  8. Bahut Sundar! manosthiti ka gahan adhyayan kar kavita ka srijan hua hai.

    ReplyDelete