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Wednesday, April 14, 2010

आना और जाना यों मेरा

सुलग सुलग जल रहा है
चाँद भी रात गर्म कर रहा है
अलाव सारे बुझ चुके है
शरीर अब भी धधक रहा है
धुंवा अब नहीं लपट है
आसमान लाल हो रहा  है
धरा  पर सब ओर लालिमा है
मैं अब कहाँ ?
बुझी हुई  राख में
अब भी  मुझे ये कौन खोज रहा है ?
चटक गयी हड्डियाँ सारी
पिघल गया एक वजूद
मिटटी में मिल महोत्सव हो रहा है
याद बन उसकी आँखों से जो टपक रहा है
उतना भर था मेरा साथ वो भी छूट रहा है
ये जीवन मेरा  शब्दों  में पिघला  जितना
कविता बन 
उसकी अनुगूँज हो रहा है
 आना और  जाना यों मेरा
उसकी  साधना में सार्थक हो रहा है !

6 comments:

  1. हमेशा की तरह उम्दा रचना..बधाई.

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  2. bahut khoob sir kitni gahrai se vivechana ki...
    http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

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  3. भावों की गहराई नापने के लिये कोई नपना नहीं है । उसका सुख स्वयं उतर कर मिलता है ।

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  4. ये जीवन मेरा शब्दों में पिघला जितना
    कविता बन
    उसकी अनुगूँज हो रहा है
    आना और जाना यों मेरा
    उसकी साधना में सार्थक हो रहा है !
    In diggaj tippanikaaron ke baad mai ek adna-si wyakti kya kahungi?

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