सुलग सुलग जल रहा है
चाँद भी रात गर्म कर रहा है
अलाव सारे बुझ चुके है
शरीर अब भी धधक रहा है
धुंवा अब नहीं लपट है
आसमान लाल हो रहा है
धरा पर सब ओर लालिमा है
मैं अब कहाँ ?
बुझी हुई राख में
अब भी मुझे ये कौन खोज रहा है ?
चटक गयी हड्डियाँ सारी
पिघल गया एक वजूद
मिटटी में मिल महोत्सव हो रहा है
याद बन उसकी आँखों से जो टपक रहा है
उतना भर था मेरा साथ वो भी छूट रहा है
ये जीवन मेरा शब्दों में पिघला जितना
कविता बन
उसकी अनुगूँज हो रहा है
आना और जाना यों मेरा
उसकी साधना में सार्थक हो रहा है !
हमेशा की तरह उम्दा रचना..बधाई.
ReplyDeletebahut khoob sir kitni gahrai se vivechana ki...
ReplyDeletehttp://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
superb !
ReplyDeleteभावों की गहराई नापने के लिये कोई नपना नहीं है । उसका सुख स्वयं उतर कर मिलता है ।
ReplyDeleteAti sundar!
ReplyDeleteये जीवन मेरा शब्दों में पिघला जितना
ReplyDeleteकविता बन
उसकी अनुगूँज हो रहा है
आना और जाना यों मेरा
उसकी साधना में सार्थक हो रहा है !
In diggaj tippanikaaron ke baad mai ek adna-si wyakti kya kahungi?