Search This Blog

Sunday, May 16, 2010

कविता मेरी परेशां भटकती है

जो चले गए वे गूंजते है
जो रहे  चुप्प सुन रहे है
नहीं की तलाश में पाया है हमेशा
 जो है वो कहा मिला किसे
राह सूनी है मगर बुलाती है
भीड़ भरे  चोराहे नकारते है
पेड़ पे चिड़िया का घोंसला
पत्तों को हरा करता है
पीला पड़ता पत्ता हरे को पुख्ता करता है 
रेत हुए  निसान खोजने को आमादा करते है
 जो सुनाई  नहीं देती वे आवाजे
मेरे हाल बदले जाती है 
जो नहीं है मेरे पास
व्ही  जीने का मेरा सामान है 
शब्द  पुकारते है निकालो मुझमे
खो गए वे अर्थ जिनके लियेमें हुआ
कविता मेरी परेशां भटकती है
मिटटी हंस कर कहे जाती है
आ रहा देखो फिर कोई मिलने मुझमे .......

3 comments:

  1. शब्द पुकारते है निकालो मुझमे
    खो गए वे अर्थ जिनके लियेमें हुआ
    कविता मेरी परेशां भटकती है
    मिटटी हंस कर कहे जाती है
    आ रहा देखो फिर कोई मिलने मुझमे ....

    एक गहरी और कुछ कहती रचना ......हमेशा की तरह लाजवाब

    ReplyDelete
  2. bahut hi naayaab rachna...gehra arth samete hue...

    ReplyDelete
  3. राकेश जी,
    आपकी कविता अच्छी लगी।

    ReplyDelete