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Sunday, May 23, 2010

देखते उसे लगातार

चाहता  हूँ आकाश की तरह खाली होकर जीना
धरती  की तरह हरा कभी, कभी सूखा क्यों रहूँ
हर क्षण हो मेरा खाली शून्य में ध्यान लगाता सा
छोड़ता जाऊं, धकेलता जाऊं शरीर अपने बाहिर
दूर से नज़र आऊँ ,सबको नज़र आऊँ मुझसा
जैसे नज़र आता सबको- आकाश का रंग नीला
ये रंग जो झूठा है - आँख ने आकाश को दिया है
होकर बेरंग, बेआकार बस रहूँ.... ज़िऊ मैं
इस दुनिया के बीच रहूँ खाली, मैं बस रहूँ
न देखते हुए .दीखते हुए ..देखते उसे लगातार ......

4 comments:

  1. बहुत अच्छी कविता...

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  2. बहुत गहरे से निकली है यह रचना। बहुत सुन्दर है....बधाई।

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  3. धरती और आकाश दोनों ही कितना कुछ देते हैं सीखने को । विशालता व धैर्य ।

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