ये दिल अब संभलता नहीं
रह रह कसमसाता है
देह से बाहिर निकल
आकाश हो धरती को निहारना चाहता है
बिखर कर हवा में शरीर मेरा
अपनी प्रेयसी को ढूंढ़ता है
नदी में मिल कर बूँद जैसे ढूंढती अपना वजूद
और पानी पानी हो बहे जाती है
मेरा दिल भी अब हवा की मानिंद बहना चाहता है
तेरी जुल्फों में अटक तेरी खुशबू होना चाहता है
पेड़ के पत्तों का रंग हरा चाहता है
तेरे लबों पे तबस्सुम और आँखों में वो अंदाज़ चाहता है
जो तुम जानो या मैं जानू वो इशारा अब चाहता है
दिल इतना है बेताब की अब आवारगी की राह चाहता है
रास्ते के दोनों ओर खड़े पेड़ों में ठहरना नहीं
चिड़िया की तरह उड़ना चाहता है
नींद ना उड़े बस अब घोंसलों में इतने ही तिनके चाहता है
दिल मेरा खुद को खोकर अब नयी दुनिया चाहता है
bahut sundar sirji
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और मनभावन रचना है सर ,,,,,,कुछ पंक्तिया तो अत्यधिक ...मोहक है ,,,,/ ऐसा ही कुछ हमने लिखा है ,,आपके सुझाव चाहिए प्रतीक्षा है ..
ReplyDeletebahut achha laga pad kar bahut khub
ReplyDeletehttp://kavyawani.blogspot.com/