Search This Blog

Tuesday, June 1, 2010

निहारना चाहता है

ये दिल अब संभलता नहीं
रह रह कसमसाता है
देह से बाहिर निकल
आकाश हो धरती को निहारना चाहता है
बिखर  कर हवा में शरीर मेरा
अपनी प्रेयसी को ढूंढ़ता है
नदी में मिल कर बूँद  जैसे ढूंढती अपना वजूद
और पानी पानी हो बहे जाती है
मेरा दिल भी अब हवा की मानिंद बहना चाहता है
तेरी जुल्फों में अटक तेरी खुशबू होना  चाहता है
पेड़ के पत्तों का रंग हरा चाहता है
तेरे लबों पे तबस्सुम और आँखों में वो अंदाज़ चाहता है
जो तुम जानो या मैं  जानू वो इशारा अब चाहता है
दिल इतना है बेताब की अब आवारगी की राह चाहता है
रास्ते के दोनों ओर खड़े पेड़ों में ठहरना नहीं
चिड़िया की तरह उड़ना चाहता है
नींद ना उड़े  बस अब घोंसलों में इतने ही तिनके चाहता है
दिल मेरा खुद को खोकर अब नयी दुनिया चाहता है

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर और मनभावन रचना है सर ,,,,,,कुछ पंक्तिया तो अत्यधिक ...मोहक है ,,,,/ ऐसा ही कुछ हमने लिखा है ,,आपके सुझाव चाहिए प्रतीक्षा है ..

    ReplyDelete
  2. bahut achha laga pad kar bahut khub

    http://kavyawani.blogspot.com/

    ReplyDelete