मैं क्या कहूँ
क्या सोचूं
क्षण क्षण
काटता है
जैसे
चलता हो कोई आरा
मन की कोरों पर होती कसमसाहट
में होती अपने में कभी
कभी होती उसमें
सीमायें देह की टूट गयी
देखूं उसे तो
चिल्लाऊं
नहीं देखू तो बावरी हो पुकारूँ
विरह की तो सुनी थी
होती ऐसी हालत
पर कान्हा तू ही बता
प्यार में तेरे गोपी का
होता था क्या ऐसा हाल ?
प्यार की आरी से कट
हुई मैं बेहाल ....
bahut sundar
ReplyDeletepasand !
ReplyDeletepasand !
pasand !
anupam kavita !
सुंदर रचना
ReplyDeleteबेहद सुन्दर!!
ReplyDeleteप्यार की आरी से कटना, काटना ...
ReplyDeleteसुन्दर शब्द प्रयोग ...!!
वाह वाह
ReplyDeleteप्रस्तुति...प्रस्तुतिकरण के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
गहरी बात ।
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