ये तपिश बूँद बूँद की बरसात से उठी आहें धरती की
बादल आते है छा कर चले जाते है
रेगिस्तान बरसों से भुगतता आया है ये बेरुखी
अब तो हरे भरे मैदान भी तरसते है
नदियों ने शिकायत की है
धरती के लोग पानी का बुरा हाल करते है
बर्फीले पहाड़ भी परेशां है
पेड़ों का रो रोकर बुरा हाल है
बादल सबकी सुनकर औचक हुए
सोचा की मेरा प्राण है ये जल
गर बरसा यहाँ ..तो वे कर देंगे
इस पानी को भी ख़राब
फिर में क्यों बरसू ?
हवाएं मनाने में लगी है
पेड़ भी अब गुस्सा छोड़
कहते है...... अबोध है
नदिया कहती है माफ़ करो
इस बार तो बरसो
शायद समझे अब भी ये इंसा ....
bahut sundar kavita ...........
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