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Saturday, June 19, 2010

इस बार तो बरसो

ये तपिश बूँद बूँद की बरसात से उठी आहें धरती की
बादल आते है छा कर चले जाते है
रेगिस्तान बरसों से भुगतता आया है ये बेरुखी
अब तो हरे भरे मैदान भी तरसते है
नदियों ने शिकायत की है 
धरती के लोग पानी का बुरा हाल करते है
बर्फीले पहाड़ भी परेशां है
पेड़ों का रो रोकर बुरा हाल है
बादल सबकी सुनकर औचक हुए
सोचा की मेरा प्राण है ये जल
गर  बरसा  यहाँ ..तो वे कर देंगे
इस पानी को भी ख़राब
फिर में क्यों बरसू ?
हवाएं मनाने  में लगी है 
पेड़ भी अब गुस्सा छोड़
कहते है...... अबोध है 
नदिया कहती है माफ़ करो
इस  बार तो बरसो
शायद समझे  अब भी ये इंसा ....

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