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Wednesday, June 23, 2010

बीते दिनों क़ी याद में

जमीन के भीतर
रेंगते रेंगते
रिसता रिसता
पहुंचता 
खारे  समुन्द्र का पानी
 यहाँ रेतीले धोरों में
प्यासों के हलक तर करके
अपनी प्यास बुझाता है 
 इतराता है रेगिस्तान 
मुझमें से फूटा---देखो मीठे  जल का सोता ..
समुन्द्र
बीते दिनों क़ी याद में
हो रहा है यहाँ  मीठा
रेत शायद ही  कभी यह  जान पायेगी !

3 comments:

  1. एक सुंदर रचना , बधाई

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  2. बहुत सुन्दर...रेत कब जान पाई है!!

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  3. समुन्द्र
    बीते दिनों क़ी याद में
    हो रहा है यहाँ मीठा

    achchhee bat kahee aapne

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