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Friday, June 25, 2010

ये क्यूँ निभाता ?

वासना अभी गयी नहीं
अब भी शरीर करता है आकर्षित
प्यार और आकर्षण में फर्क
कभी कभार कर नहीं पाता
छोड़ने को प्यार कहते है
जो मुझसे हो नहीं  पाता 
उसकी  देह में डूबकियां
लगाता मैं..करता प्यार
जानता हूँ देह कहा रहती
मगर फिर भी
देह के सहारे सात  जन्मो का 
रिश्ता निभाने का संकल्प  दोहराता हूँ  .
वो मेरी है मैं उसका हूँ
ये सुन  भीतर मेरे कौन मुस्कुराता  !
अनदेखा कर मन को.... मैं
रस्मो रिवाज निभाता जाता ....
प्यार पीछे छूट जाता
पूरी जिंदगी अपनी मैं
ये क्यूँ निभाता ???

3 comments:

  1. मन मुस्कराता है, जानता है कि निभा नहीं पायेंगे ।

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  2. आपकी रचना पढ़ कर मन गदगद हो गया बधाई हो।
    सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
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