अंधियारे में जब उजाला की कोई आशा बाकी न बचे
अन्धकार को ही उजाला बनाता हूँ
अपने तीसरे नेत्र को जगाता हूँ
जीवन को अपनी धारा में मोड़
अपने को आलोकित करता हूँ
बेबस ,असहाय नहीं मैं
खुद उझाला बन
अपने अंधियारे को भगाता हूँ
तूफानों में जैसे खडा रहता पेड़
अपनी हरियाली से करता छाया
मैं भी इस दुनिया को
अपने रंग से भरता हूँ
जिसको तुम समझते मेरा अँधियारा
उसको में यों अपना ज्योति पुंज बनाकर जीता हूँ .... राकेश मूथा
अँधियारा योगियों का मार्ग प्रशस्त करता है ।
ReplyDeleteadbhut bhaavon ka samavesh kavita ki aatma hai!
ReplyDeletebahut sundar....