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Tuesday, July 20, 2010

महानगर...

समुन्द्र के पास भटकती प्यास देखी
पेड़ों की घनी छाँव में झुलसते लोग देखे
मकानों के जंगल अकेलापन देखा 
जिसे भी छूलो उसमे सिसकती आहें सुनी
यूँ दिखने में सब सुंदर था
मगर भीतर छलकती आँखों से भरी
न सूखने वाली नदी बहती देखी
दुःख दुःख सिर्फ दुखों से भरे
इन चेहरों पर हमेशा हंसी देखी
महानगरों में टूटते रिश्तों के बीच
नयो रिश्तों के लिए अथाह ललक देखी
कम होते आकाश व् धरती के बीच
चलती फिरती लोगों की भीड़ में
गुम होती परछाइयों की चीखें कभी न कोई सुन पायेगा
मगर इनके शोर को सुनकर
सन्नाटें भी शरमा गए
जब ऊँचे फ्लैट में भटकती खामोशी देखी ..
महानगर.... तुझमे मेने अपने को
डूबते देखा
और आकर अपने गावं खुद में
कितना कुछ बदलते देखा ....

4 comments:

  1. महानगरों की चकाचौंध में धूमिल हुए रिश्ते फिर से लौटें गाँव जाने पर ही ...
    लोग गाँव को खुद अपने भीतर नहीं बसा लेते ...जहा भी जाएँ गाँव साथ जाये...
    फिर न ये सूनापन ..ना शिकवा ...

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  2. महानगरीय कोलाहल में गाँव की गुञ्जन खो जाती है।

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  3. mahanagar ke pass ke gavo ki bhi alag hi peed hoti hai .
    badhiya kavita .

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  4. कम होते आकाश व् धरती के बीच
    चलती फिरती लोगों की भीड़ में
    गुम होती परछाइयों की चीखें कभी न कोई सुन पायेगा
    waah! kavi ne sahajta se katu satya likh dala hai...
    yatharth ka digdarshan karati hui saarthak kavita!
    regards,

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