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Monday, September 6, 2010

मां ...


छिलका उतारते हुए नारियल का
याद आई-- मां
अपने रेशे रेशे से बनाया
जिसने इस गिरी को ...
उसको हम कहाँ पहचानते आज
जिसने खुद सहे धुप,बर्फ ,आंधी ,तूफ़ान के थपेड़े
वो छिलका
फैक दिया गया है मलबे में
मां ..../

6 comments:

  1. बहुत बढ़िया .

    कृपया इसे भी पढ़े -------http://ashokbajaj99.blogspot.com/

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  2. गहरी अभिव्यक्ति।

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  3. उफ़्………।बेहद गहन और मार्मिक चित्रण्।

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  4. बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति ...आभार !
    अक्सर रुखी रातों में

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  5. बहुत ही मार्मिक कविता । माँ जिसके रेशे रेशे ने हमें सींचा है, बहुत खूब ।

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