जितनी देर चुप रही साथ
चाप उसके जाते हुए क़दमों की
उतनी गहरी छोड़ गयी छाप
न होते हुए होना उसका
मुझ - अकेले का हो गया साथ
जीवन तब भी था उसके बिना
जीवन अब भी है उसके साथ
फर्क बस इतना भर है
तब जीवन में मैं था
अब जीवन में हम है
और है हमारे सपने हज़ार .......
भावपूर्ण स्थिति, सपने और हम।
ReplyDeleteगहरी बात
ReplyDeleteआदरणीय राकेश जी
ReplyDeleteनमस्कार !
पहली बार पहुंचा हूं आपके यहां , अच्छी भावपूर्ण रचनाओं का सृजन करते हैं आप । साधुवाद ! बधाई !!
आपके " सपने हज़ार " हर रात द्विगुणित होते रहें , और हर दिन सपने साकार होते रहें !
अस्तु !
- राजेन्द्र स्वर्णकार