आंसू कोरों तक आकर रुके है
शाम दरवाजे तक पहुँच ही रही है
दिन चुप हो गया है
शब्द कोलाहल में बदल रहे है
धूप का टुकड़ा पहिले पीला फिर लाल सा होता
सूरज में कही छिप गया है
काहे नहीं आये अब तलक- तुम !
बजा फोन बजा ....
रुके हुए थे जो कोरों पर
फिर कभी रुके नहीं वो आंसू
बहते है ......धारासार
बारूद ..धुंवा ...आतंक .....
लील ही गया
फिर वो कहा आया.....
मार्मिक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteशुभकामनायें
सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना।
ReplyDeleteमार्मिक!
ReplyDeleteशब्द संवेदना से भरे हैं ...
लेखन के लिए शुभकामनाएं...