उलझता है हर धागा इस गोले का
कुछ तो उतावलापन अपना
कुछ अपनी लालसा
तरह तरह की डिजाईन के लिए
सलाई बड़ी छोटी नुकीली
फिर तेजी से चलते हाथ
झाडे की बढती आहट
उपर से नौकरी ,घर का काम
महानगर की बसों के धक्के
मेट्रो की भीड़ में अकेले होती मैं
जब भी खोजती हूँ खुदको
उलझ जाता है धागा इस जीवन गोले का
मिली हूँ जब से तुमसे
लगा है मुझे अब शायद सुलझे
मगर उतना ही डरती हूँ कही
इन धागों को सुलझाते
तुम कही न उलझ जाओ ......
bahut sahjata se bahut gahre bhav vykt kiye hai aapne ise kavita me .
ReplyDeleteछोटी सी मगर प्यारी कविता ।
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