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Sunday, December 5, 2010

साथ ......साथ

वो लड़की
जैसे किसी कुंड से नहाई
अभी अभी आई
आशा का निर्मल सरोवर था शायद वो
जो इस गंदली होती दुनिया को चोंका  गया
बिंदास हंसती हंसती
दुनिया को सुंदर बनाने का यत्न करती
अपने नन्हे कंधो पर उठाये बोझ
भागे जाती है दिन रात
न तो देखती सपने... न छोडती कुछ अपने लिए
वो लड़की बस लुटाये जाती प्यार
  दूजे की सुन्दरता में ही देख ...
...अपना सोंदर्य ...अपने यौवन को निखारती है
आएगा दूर सुदूर से कोई 
उसकी महक में झूमता  कभी
इस लड़की को ले जाएगा
सजायेंगे दोनों मिल फिर
ये दुनिया
 साथ ......साथ

3 comments:

  1. बढ़िया रचना है बधाई।

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  2. लेकिन उसकी ये अभिलाशा कब पूरी होती है? सुन्दर रचना के लिये आभार।

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  3. अभिलाषाओं की सुगन्ध में पगी कविता।

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