वो जब भी चलता है
परछाई जमीन पर उसकी बीछ्ती है
कच्ची बस्तियों मैं
पथरीले रास्तों मैं
गन्दी नालियों मैं
मजबूरियों की छतों पर
वेदनाओ के आँगन पर
दर्द की खिडकियों की जालियों पर
कराहती है लिजलिजी उसकी परछाई
और वो इन सब रास्तों पर छोड़ अपनी परछाई
किले की बंद चारदीवारी मैं
न जाने कैसे
राजा बन सिंहासन पर बैठ जाता है !!!!
बहुत सुन्दर कविता।
ReplyDeletetoo good.
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