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Wednesday, April 13, 2011

दोपहर

दोपहर 
दर्द से लिपटी 
थकी मांदी
ढूंढती 
बचे पेड़ों की 
हरियल छाया 
रेंगती 
सूखे पीले झरझर पत्तों पर 
कड़-कड़ ...पत्तो की आवाजें 
देती संगीत 
दोपहर के सूनेपन को
और सूना करती  
तेज धूप के लबादे में 
खुद ही खुद से 
न जाने क्या बाते करती 
बुदबुदाती ...
अचानक अचकचा 
लपेटती खुद को खुद में फिर 
अपनी बातो को फिर छुपाती अपने में 
सज  धज 
होठों को रंग 
संध्या 
प्रियतम  का इंतिज़ार करती .....

1 comment:

  1. मिलन की बेला, सुन्दर कविता।

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