दोपहर
दर्द से लिपटी
थकी मांदी
ढूंढती
बचे पेड़ों की
हरियल छाया
रेंगती
सूखे पीले झरझर पत्तों पर
कड़-कड़ ...पत्तो की आवाजें
देती संगीत
दोपहर के सूनेपन को
और सूना करती
तेज धूप के लबादे में
खुद ही खुद से
न जाने क्या बाते करती
बुदबुदाती ...
अचानक अचकचा
लपेटती खुद को खुद में फिर
अपनी बातो को फिर छुपाती अपने में
सज धज
होठों को रंग
संध्या
प्रियतम का इंतिज़ार करती .....
मिलन की बेला, सुन्दर कविता।
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