हलकी हलकी नींद
और उड़ते बादल जैसे रुई के फाहे
और घने - उस -पेड़ की छाया
बिलकुल सुनसान
उस निर्जन स्थान
कोई आवाज नहीं थी
धड़कन भी होले होले
कम करने लगी थी आवाज
चौकस हो जैसे सुनने को
आकाश ,धरती ,पेड़, घोंसले ,पंछी
मगर कोई नहीं हुई - जो- आवाज
उस दिन
वो आज तक गूंजे है
करे है न जाने कितनी कितनी बाते
मेरे सूनेपन को भरे है
बरसों से
बरसों पहिले गुजरे
वो पल ...
और तुम ........
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