बहुत पास पहुँच
कितने पीछे हो गए
सबने मान लिया था
कही हम भी शायद सोचने लग गए थे
हमने पा लिया है लक्ष्य
शायद यही भूल हुई कही
यही फिसला पाँव हमारा
जहा गिरे वहा से
सारे सपाट मैदान भी
ऊँचे पर्वत हो गए
मंद मंद चलते थे
जो रोज रोज आगे बढ़ते थे
वो आज सारे कछुवे
मैदान जीत गए
ये हार जीत अंतिम नहीं
हार का कोई गिला नहीं
मगर क्यू हम खुद
यू खुद पे फ़िदा हुए
आँखों से टपकता है अब गुरुर
पावं लौटते हुए
वो जमीन मेरे घर क्या ले आये
फिर कभी नसीब नहीं हुई हरियाली
जो भी उगता है अब सब्जा
वो फल आने के वक़्त
अब हमेशा पीले हुए ......
एक शाम जब ढलते ढलते
अपनी गुलाबी रंग से हमें रंग
फुसफुसाई
तो फिर जो भी दिन आये
हमें हरे करते गए ...
जमीन वही थी
हम भी वही
मगर वो सुरमई रंग
भरता जाता है अब हमें फलों से
वो क्या दिन थे--- क्या दिन हुए ......
शायद यही भूल हुई कही
ReplyDeleteयही फिसला पाँव हमारा
bahut khoob bhavabhivyakti .badhai.
हार मानने के बाद ही पता लगता है कि मंजिल कितने पास थी।
ReplyDeleteपावं लौटते हुए
ReplyDeleteवो जमीन मेरे घर क्या ले आये
फिर कभी नसीब नहीं हुई हरियाली
जो भी उगता है अब सब्जा
वो फल आने के वक़्त
अब हमेशा पीले हुए ......
हार मानने का नाम जिन्दगी नहीं, मंजिल हमेशा करीब ही होती है , हाथ बढाया और थाम ली, सुन्दर वर्णन