बहुत अफरातफरी मची है
कानून वो है जो हाथ में है
अब ये उस हाथ पर निर्भेर है की वो उसका डंडा बनाये
या सविधान के अनुरूप
और उससे भी आगे जाकर लोक की बात सुने
मगर हाथ तो लगा है अपनी खुजली ,अपने तनाव को भांजने
लोकतंत्र नहीं हुआ कोई खिलौना हुआ
जिस की जब मर्जी हुई
जहा जगह दिखी मंच बनाया
और अपनी सेकने लगता है रोटी
रोज रोज के इन भुलावो में लोक भूल जाता है अपनी रोटी
और अपनी भूख मिटाने हो जाता है साथ
और वही लोक मरता है ,पिटता है बेचारे डंडो से
जो इंतिज़ार करते रहते है बैरेक मैं तेल पी पीकर
अपने होने का
इन डंडे चलानेवालों और डंडे खाने वालो का मकसद है कोई
जब वो सामने आता है
हर कांच टूटा है
और उन टुकडो मैं बिखरा हूँ मैं ...
सिर्फ मैं ......
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